मात्र 5 साल के अंदर हिंदुस्तान की कसम मत बदलने वाले शेर शाह सूरी की कहानी
नई दिल्ली: आपको बता दें कि शेर शाह सूरी की गिनती उन बादशाहो में होती है जिन पर इतिहास ने कभी कोई न्याय नहीं किया। शायद इसका एक कारण यह रहा हो कि उन्होंने 5 साल तक हिंदुस्तान पर हुकूमत की और उनकी मौत के 10 सालों के अंदर ही उनके वंश का शासन भी खत्म हो गया। शेरशाह सूरी की जीवनी लिखने वाले एक लेखक लिखते हैं कि ‘शेरशाह सूरी का शासन भले ही 5 वर्षों का रहा हो लेकिन शासन करने की बारीकी न्याय प्रियाता, क्षमता ,मेहनत और निजी चरित्र खरेपन हिंदू और मुसलमानों को साथ लेकर चलने वाले अनुशासन और रणनीति बनाने में वह अकबर से कम नहीं थे,
शेरशाह सूरी का असली नाम फरीद था। उन्होंने बाबर के साथ काम किया था और 1528 में वह चंदेरी के अभियान में भी गए थे। बाबर की सेना में काम करते समय ही इन्होंने हिंदुस्तान की गद्दी पर बैठने के ख्वाब देखने शुरू कर दिए थे। इसके बाद में शेरशाह बिहार के एक छोटे से सरगना जलाल खा के यहां काम उपनेता के तौर पर काम करने लगे। बाबर की मौत के बाद उसका बेटा हुमायूं बंगाल जीतना चाहता था लेकिन इसके बीच शेरशाह सूरी का इलाका पड़ता था बाद में हुमायूं ने शेरशाह सूरी से लड़ने का इरादा बनाया। मशहूर इतिहासकार फरहद नर्सरी लिखती हैं कि शेरशाह सूरी की महत्वकासा इसलिए बढ़ रही क्योंकि बिहार और बंगाल पर शेर शाह सुरी का अच्छा खासा असरो रुशुख था।
अंत में वह मुगल बादशाह हुमायूं के लिए सिर का दर्द बन गए। युद्ध कौशल की बात करें तो शेरशाह सूरी हुमायूं से कई गुना बेहतर थे। सन 1537 में दोनों बादशाहो की सेनाएं चौसा के मैदान में एक दूसरे के आमने सामने टूट गई। लेकिन लड़ाई से पहले मुगल बादशाह हुमायूं ने अपना दूध शेरशाह सूरी के पास में भेजा। अब्दुल कादरी बदायूनी अपनी किताब मुंतखाब तारीख में लिखते हैं कि जब हुमायूं का दूत मुहम्मद अजीज़, अफगान खेमे में पहुंचा तो शेर शाह सूरी कड़ी धूप में अपने आस तीनों को ऊंची करके एक पेड़ के तने को काट रहे हैं। जमीन पर बैठकर ही उन्होंने हुमायूं का संदेश खूब ध्यान पूर्वक सुना।
अजीज नहीं दोनों के बीच सुलह करवाई और इस का नतीजा यह निकला कि बिहार और बंगाल दोनों ही शेरशाह सूरी को दे दिए जाएं। इसके कुछ ही समय बाद कन्नौज में 17 मई 1940 को दोनों की सेनाओं के बीच फिर से मुकाबला हुआ। शेरशाह सूरी की सेना में मात्र 15000 सैनिक और हुमायूं की सेना में 40000 से ज्यादा सैनिक थे। लेकिन हुमायूं के सैनिकों ने लड़ाई शुरू होने से पहले ही उसका साथ छोड़ दिया और बिना एक भी सैनिक व्हाई इस युद्ध में शेरशाह सूरी की जीत हुई।
हुमायूं इस लड़ाई में भाग खड़ा हुआ और किसी तरह से जान बचाकर आगरा पहुंचा और कुछ धन अपने साथ लेकर अपनी बेगम के साथ मेवात के रास्ते होते हुए लाहौर पहुंच गया। हुमायूं लाहौर में करीब 3 महीने रहा। शेरशाह सूरी ने हिंदुस्तान के अंदर बड़े पैमाने पर सड़कें और सराय बनवाई उसने सड़कों के किनारे पेड़ लगवाए। सड़कों के किनारे हर 2 कोस पर उन्होंने सराय बनवाई जिनमें 22 घोड़े पर इंतजाम किया गया।
शेरशाह के शासन की सफलता में सराया और सड़कों के जाल ने अहम भूमिका निभाई। इन के शासनकाल में अधिकारियों का अक्सर तबादला कर दिया जाता था। हर सराय में बादशाह के लिए एक अलग कमरा आरक्षित रखा जाता था। शेरशाह सूरी ने दिल्ली में पुराना किला बनवाया। सन 1542 में उन्होंने पुराने किले के अंदर ही ‘ कीलाएं कुल्हा मस्जिद’ भी बनवाई। शेरशाह सूरी का मकबरा बिहार के सासाराम में बनवाया गया।
शेरशाह सूरी ने कभी भी अत्याचार और अन्याय करने वाले का साथ नहीं दिया। चाहे तो उनमें उसके रिश्तेदार ही क्यों ना हो। आधी रात गुजर जाने के बाद उनके नौकर उनको जगा देते थे और फजर की नमाज के बाद वह देश के अलग-अलग हिस्सों की जानकारी करते थे। शेरशाह की दयालुता के बहुत से किस से मौजूद हैं अगर किसी यात्री या व्यापारी की कहीं पर हत्या हो जाती तो वह हत्यारों को पकड़कर कठोर से कठोर सजा देते। अपने सैनिकों के साथ भी शेरशाह सूरी का व्यवहार बहुत अच्छा रहता था और उनके सैनिक भी उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे।
एक मशहूर इतिहासकार लिखते हैं कि वह पहले ऐसे मुस्लिम शासक थे जिन्होंने अपनी प्रजा का भला चाहा। शेरशाह के शासनकाल में हिंदुओं को अच्छे पदों पर रखा जाता था। शेरशाह सूरी की मौत बारूद में आग लगने से हुई थी शेरशाह सूरी को कालिंजर के किले के पास लालगढ़ में दफनाया गया । बाद में इनका पार्थिव शरीर निकालकर सासाराम में दफनाया गया जहां इन का मकबरा आज भी मौजूद है।