एकलव्य गरीब नहीं था। वह श्रृंगवेरपुर के राजा हिरण्यधनु का पुत्र….।

एकलव्य गरीब नहीं था। वह श्रृंगवेरपुर के राजा हिरण्यधनु का पुत्र….।

एकलव्य गरीब नहीं था। वह श्रृंगवेरपुर के राजा हिरण्यधनु का पुत्र था। और श्रृंगवेरपुर की शत्रुता थी हस्तिनापुर और मथुरा के साथ तथा मित्रता थी मगध के साथ। द्रोणाचार्य को भीष्म ने हस्तिनापुर के राजकुमारों को धनुर्वेद की शिक्षा देने के लिये नियुक्त किया था। शत्रु राजकुमार एकलव्य जब उनसे शिक्षा लेने आया तो मना कर दिया! शत्रु राजकुमार को अपने ही राजकुमारों के साथ शिक्षा कौन दे सकता है।

मना करने के बाद भी एकलव्य गया नहीं और चोरी से सब सीखता रहा। जैसे कोई जासूस दुश्मन देश में जाके जहाँ उनके कमांडो तैयार हो रहे हों, वह प्रशिक्षण चोरी से सीखे। चोरी से सीखने वाले का अभ्यास और एकाग्रता अधिक होती है। क्योंकि उसे पता है कि यहीं अवसर है, जितना सीख सकते हो सीख लो। क्या पता कब बन्द हो जाये और पकड़े जाने का डर होने के कारण भी वो रातों को सोने के बजाय सारी सारी रात अभ्यास करता है। एकलव्य ने भी वहीं किया और धनुर्विद्या में पारंगत हो गया।

जब पकड़ा गया तो मृत्युदण्ड तो मिलता ही। परन्तु गुरु द्रोण के चरणों में गिर गया और उनसे प्रार्थना करने लगा कि मैं आपका शिष्य हूँ। गुरुद्रोण को दया आ गयी और उन्होंने केवल उसका अंगूठा मांगकर उसे प्राणदान दे दिया। इतना ही नहीं, उसे तर्जनी और मध्यमा उंगली के बीच तीर रखके धनुष चलाना भी सिखाया। मगर कहानी को क्या बना दिया गया?? गुरु द्रोण को विलीन बनाने के हर सम्भव प्रयास किये गये। ओशो जैसे व्यक्ति ने कह दिया कि उसकी नजरों में गुरु द्रोण से घटिया व्यक्ति ही कोई नहीं है। और लोगों ने भी महाभारत का अध्ययन किये बिना tv सीरियल देखकर और अपने आप को आध्यात्मिक ठेकेदार कहने वाले ऐसे लोगों की बातें सुनकर गुरु द्रोण को गलत कहना शुरू कर दिया।

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मत भूलिये! यह वहीं गुरु द्रोण थे, जिन्होंने उन्हें मारने के उद्देश्य से पैदा होने वाले धृष्टद्युम्न को भी शिष्य स्वीकार करके धनुर्वेद की शिक्षा दी थी। क्योंकि उससे हस्तिनापुर को खतरा नहीं था। परन्तु एकलव्य जरासन्ध का सेनापति बना था। यादवों पर आक्रमण किया था उसने। गुरु द्रोण ने उसकी जान बचाकर जो उपकार किया, उसके बदले में केवल उन्हें गलत ही कहा गया और फिर ब्राह्मणों पर आरोप लगाये गये कि ब्राह्मणों ने शूद्रों को पढ़ने नहीं दिया। भाई! हस्तिनापुर के महामंत्री महात्मा विदुर शूद्र ही थे!! और हस्तिनापुर में वे भीष्म, द्रोण, कृप की तरह ही सम्मानित थे। ब्राह्मणों पर आरोप लगाने से पहले अध्ययन कर लो।

और एक बात… मैं ब्राह्मण हूँ। परन्तु अपना ब्राह्मणत्व सिद्ध करने के लिये मुझे अपने गुणों का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है, मैं कितना भी दुष्ट व्यक्ति क्यों न बन जाऊं, परन्तु संविधान के अनुसार मैं ब्राह्मण कास्ट का हूँ और ब्राह्मण ही रहूंगा। मेरे caste सर्टिफिकेट पर मेरी caste ब्राह्मण लिखी गयी है। शास्त्र में ब्राह्मण के कुछ कठोर नियम हैं। केवल ब्राह्मण कुल में जन्म होने के कारण ही व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होगा। उसे ब्राह्मणत्व की मर्यादा का पूर्णतः पालन भी करना होगा। परन्तु संविधान केवल जन्म को मानता है, कर्म को नहीं। ब्राह्मण कुल में पैदा होने के बाद यदि मैं चांडालों जैसे कार्य भी करूँगा तो भी रहूंगा मैं ब्राह्मण ही। मरते दम तक हमारी caste नहीं बदली जा सकती। परन्तु यहीं संविधान हमें religion बदलने की अनुमति देता है!!

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